Saturday, November 10, 2012

सब सपना


ठंडी हवा
एक महक
कुछ बातें
ये नजारें

पर्वत
नदियाँ
सब सपना
और कुछ नही

Tuesday, September 11, 2012

हे किशन ( आत्म साक्षात्कार )

हे किशन ,
यातना से क्या घबराना
दुःखों से क्या भागना
आओ साहित्य रचे
शब्दों को अमर कर दे
आओ विषपान करें
और नीलकंठ बन जाएँ !

आओ उस राह चलें
जो मुक्ति मार्ग हो
इस मुक्ति की राह पर
अपने को कुर्बान कर दें
एक नया अम्बर निर्माण करें !

आओ काँटों को चुनकर
उसे कला का नाम दें
मन में
आस्था का संचार करें
परिवर्तन बिन जीवन निस्तेज है
आओ परिवर्तन का गुणगान करें !


Wednesday, September 5, 2012

स्पर्श

एक अनजान आदमी
नदी की धारा  के साथ बहता हुआ
कल्पनातीत ख्यालों में डूबा
लहरों से बातें करता हुआ
थपेड़ों को चीरता
चला जा रहा है !

अचानक
कुछ सकुचाता हुआ
लहरों को छू लिया
अब व्यग्र हो  सोच रहा
कहीं लहरें मैली तो नहीं हो गयी
उसके स्पर्श से !

Friday, August 24, 2012

कौन हो तुम ? अपरिचित !

कौन हो तुम ? अपरिचित !

मेरे ह्रदय में उदार संवेदना को जागृत  किया 
आध्यात्मिक समझ को प्रेरित किया 
मेरे मानस को झकझोर दिया 
कल्पना को यथार्थ कर दिया 
 
कौन हो तुम ? अपरिचित !

असाधारण काव्य सौन्दर्य को प्रकाशित किया 
मनमोहक स्मृतियों को उभार दिया 
मेरे दब्बूपन को आक्रोशित किया 
मेरे जीवन का साक्षात्कार लिया 

Saturday, August 18, 2012

अंतहीन प्रतीक्षा

उदासी
खिन्नता भरी उदासी
तुम्हारी याद में
अंतहीन प्रतीक्षा !

प्रियतम
सपनो का
आधा डूबा चाँद
और
रंगहीन  परीक्षा !






Friday, August 17, 2012

निरंकुशता अमानवीय है...

निरंकुशता अमानवीय है .निरंकुश व्यक्ति दुसरे का भला नहीं कर सकता .कोई संस्था भी अगर निरंकुश हो जाय तो लोगों पर बोझ बढ़ जाता है. निरंकुशता सामंजस्य को तोड़ देता है . अहंकार को बढ़ावा देता है . यह प्रवृति हमारे माननीय राजनेताओं घर कर गयी है . इसका असर संसद पर भी परिलक्षित हो रहा है .यह भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है .संसद सामंती संस्था के रूप में काम न करे, इसे देखना अत्यावश्यक है.

Monday, August 13, 2012

सिर दर्द

सिर दर्द कि बिमारी भी बड़ी अजीब है ,कुछ न करने देती है न कुछ सोचने देती .खाने और घुमने का मन तो बिलकुल नहीं करता .कोई उपयोगी काम तो कर नहीं सकते . केवल कुछ हलके फुल्के ढंग से सोच सकते है ...तिल को ताड़ बना सकते है . बीती बाते याद कर सकते है और जीवन संघर्ष को अनुभव कर सकते है ...सुबह से परेशान था और निष्क्रिय अवस्था में सोचने का कार्यक्रम जारी था , पर हल्के फुल्के तरीके से .....
कुछ खुरापाती चिंतन को आपसे शेयर कर रहा हूँ .....

उपहास आदमी को आदमी बना देता है . आपके अंदर अपने उपहास को सहने का साहस है तो फिर आप हर बाधा को पार कर सकते है . निष्पक्ष तरीके से निर्णय ले सकते है . सत्य को समझ और जान सकते है ....उपहास सहने का साहस ही आपको धैर्यवान बना देता है तब आप किसी दुसरे का उपहास कभी नहीं करते है . किसी को उपहास का निशाना बनाना अपने ऊपर उपहास करना है .

किसी अनजानी सी जगह भाग जाऊ और वहीँ पर शिक्षा के ऊपर अपने प्रयोगों मूर्त रूप दूँ ...मैकाले की शिक्षा की सर्जरी कर दूं ,गांधी और टैगोर के विचारों पर आधारित शिक्षा को नए सन्दर्भ में कार्यान्वित करूँ .शिक्षा के उत्पाद का भारतीयकरण कर दूं ....भारतीय शिक्षा में मानवता का पुट भर दूं ... बिना समय बर्बाद किये ऐसी जगह की खोज में लग जाऊं और उसे सर्वश्रेष्ठ सर्जनात्मक प्रयोग स्थली के रूप में प्रसिद्ध कर दूं .

खुली प्रकृति के मध्य बेरोक टोक घुमने का अपना ही मज़ा है .यह मुक्ति का पहला मार्ग है .तब क्यों न इस प्राकृतिक रंगोत्सव का आनंद लिया जाय .अब इन कृत्रिम संसाधनों से नैराश्य का भाव उत्पन्न होने लगा है ....ताजगी हवा नहीं मिलती . प्रदूषित लोग और दूषित विचार के संपर्क से मन तिलमिला जाता है ...ये वैराग्य का आरम्भ तो नहीं !....खुदा जाने .

Thursday, July 26, 2012

सुलगता भारत --असम में हिंसा भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी और तुष्टिकरण का प्रतीक है

असम में हिंसा भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी और तुष्टिकरण का प्रतीक है .इससे यह भी पता चलता है कि हमें आग लग जाने पर कुआं खोदने की पुरानी बिमारी है .तरुण गोगोई की सरकार लगातार तीसरी बार असम में सत्ता में आई तो इसका मतलब ये नहीं कि वो हाथ पर हाथ धरे बैठ सकती है या उसे ऐसा करने का जनाधार मिला है .समय रहते न चेतना आज के लोकतांत्रिक सरकारों की आदत बनती जा रही है .इस तरह की आदतों का शिकार वैसी पार्टियाँ अधिक है जिन्हें मतदाता लगातार चुनकर भजते रहते है .उनके नेताओं में कहीं न कही सामंतवादी सोच का उद्भव होने लगा है .यह लोकतांत्रिक सामंतवाद मध्यकालीन सामंतवाद से अधिक खतरनाक है .आज सुनियोजित ढंग से आम आदमी को प्रताड़ित किया जा रहा है ....कुछ नए नेताओं को तो व्यवस्थित रूप से इसकी ट्रेनिंग डी जा रही है .

एक कहावत है , जैसा राजा वैसी प्रजा. आज के सन्दर्भ में भी इस कहावत की अहमियत उतनी ही है जितनी राजशाही के समय में थी बल्कि मेरा तो मानना है की आज यह अधिक सटीक है . लोकतांत्रिक अंगों की दुर्बलता देख कुछ असामाजिक तत्व इसका भरपूर फायदा उठाते है और उन्हें कुछ विकृत मानसिकता वाले नेताओं का भी भरपूर समर्थन मिलता है. असम के मौजूदा हालात में सरकार निक्कमी दिख रही है या फिर उसको इस जनसंहार और हिंसा में कुछ फायदा दिख रहा है .सबको पता है असम के कोकराझार ,चिरांग आदि जिलों में आदिवासियों और मुस्लिमों के मध्य हिंसा कोई अनोखी घटना नहीं है . अभी चार साल पहले ही २००८ में ऐसी वारदातें हो चुकी है . फिर भी सबक न लेना सरकार के लकवाग्रस्त होने की ही निशानी है .

Sunday, July 22, 2012

आसिनव

मानव अपने कर्म के आधार पर ही विराट उचांई पर पहुच सकता है .अच्छे कर्म के लिए किसी ख़ास सम्प्रदाय से जुड़ना आवश्यक नहीं .जाति,सम्प्रदाय ,धर्म आदि उसकी मदद नहीं करते .ये सभी आसिनव है जो मानव कि उचांई को कम करने का प्रयास करते है .मानव का विवेक और मानवता ही उसकी मदद कर सकती है .

Tuesday, July 17, 2012

आज की समस्या

आज की समस्या केवल यह नहीं कि क्या करना है ...यह भी कि कैसे होगा ? वाह ! यही तो पूंजीवाद और उदारवाद का रूप है . सभी तरफ खामोशी ही खामोशी ....लोगो के जुबान बंद कर दिए जाते ....मुंह में पैसे खिला कर ....कुछ तो बधाई के पात्र है उन्होंने ऐसा समाज का उदघाटन जो किया है ...नरक तो अब स्वर्ग से भी अधिक प्रतिष्ठित हो गया... उसने अपनी जाति बदल दी ....देवता लोग भ्रमित है क्या करे ! कायर कहीं के ....छुप गए है. उन्हें इस चमचमाती तलवार से डर जो लगने लगा है ....ईश्वर भी निराशा के दौर में पालथी लगा के बैठ गया है ...उसे भी इस व्यस्था का तोड़ नहीं सूझ रहा ....

Saturday, July 14, 2012

रचना का भाव

रचना का भाव अगर अहिंसा हो तो ही रचना पूर्ण होती है .हिंसक रचनाएं इतिहास नहीं रच पाती .ऐसी रचनाएं समाज में समरसता की जगह विघटन पैदा करती है.दोस्तों हिंसक रचनाओं का त्याग कर देना ही बेहतर है .हमारा यह उतरदायित्व बनता है की हम समाज में समरसता का बीजारोपण करें . इसके लिए रचना का अहिंसक होना पहली और आखिरी शर्त है.

Friday, July 13, 2012

आँखों का तर्क

तर्क बातों से ही नहीं बल्कि आँखों से भी होता है . आँखों का  तर्क समझना  मुश्किल है .इस तर्क को किसी परिभाषा में नहीं बंधा जा सकता .यह तर्क शब्दहीन  है पर बातों के तर्क से अधिक प्रभावकारी है .आँखों का तर्क इंसान को सच्चा इंसान बना देता है जबकि बातों का तर्क इंसान को जाहिल  बना देता है .

Monday, June 25, 2012

एक तारा कहीं खो गया है...

मंजिल । चल तो रहा हूँ । पेड़ों की छांव भी है ....
....पर चैन नही । एक तारा कहीं खो गया है ।
....अब क्या करूँ ।

Monday, April 30, 2012

जीवन क्या है ?

ईश्वर से साक्षात्कार जीवन है 
सत्य की तलाश जीवन है 
रिश्तों की मिठास जीवन है 
प्रकृति का आनंद जीवन है !

तार्किकता का उद्भव जीवन है 
आस्था का प्रश्न जीवन है 
अराधना का द्वार जीवन है 
श्रधा का इजहार जीवन है !

ऊर्जा का संचार जीवन है 
कला का आधार जीवन है 
पूर्णता का एहसास जीवन है 
जग का निर्माण जीवन है !

शून्य का आकार जीवन है 
मानवता का  ज्ञान जीवन है 
आध्यात्मिक उत्थान जीवन है 
संघर्ष का परिणाम जीवन है ! 


Sunday, April 29, 2012

तुम्हारी याद

 तुम्हारी याद 
 गुनगुनी धूप की तरह 
जीवन के पहर में 
चंद सांसों  के मध्य !

आवाज लगाता गया 
याद आती गयी 
इस सर्द मौसम में 
गुनगुनी धूप की तरह 
और पहर ख़त्म !

बेचैन मन 
एक टक देखता 
बीते लम्हों को 
और निहारता 
गुनगुनी धूप !




Tuesday, April 24, 2012

बुरा जो देखन मैं चला


 मेरे  मित्र फरहान सोनी पर एक कुते ने चढ़ाई कर दी ....रात में टहलने के लिए निकले थे .थोड़ी सी खरोंच आ गयी  ....डॉक्टर से सुई  भी लगवा आये ....
....दुसरे दिन रात में मिलने पर मुझसे कहने लगे  ...मेरे मन से कुते का डर हमेशा के लिए निकल गया ....पर मै उसे  सबक  सिखाना चाहता हूँ की दुबारा ऐसी गलती न करे और जब मै टहलने जाऊं तो दुबारा मुझे काटने की जुर्रत न करे ......कौन  मेरा साथ देगा ? ....मैंने कहा ...ठीक है आप मोटे- मोटे दो बेंत का उपाय करे ,चलते है!....उसे डरा कर आ जायेंगे ...लेकिन बहुत ज्यादा नहीं मारेंगे ......
....फरहान ने कहा ...मै आप लोगों को उचित समय पर कॉल करता हूँ.....अब इंतज़ार है उनके उचित समय का !!!

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दिल्ली के पुस्तक  मेले से रविन्द्र नाथ टैगोर जी की जीवनी खरीद लाया .....आज मौका मिला है ...शुरुआत करने का ....काफी रोमांचित हूँ ,जो कुछ भी विचारणीय होगा ...आप आदरणीय गुरुजनों एवं  मित्रों से जरुर शेयर  करूँगा .
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देर रात आज के राजनीतिक हालत पर काफी क्षुब्ध हो गया था ...''.सब समस्याओं की जड़ में हमारे माननीय राजनेताओं का ही हाथ है ''...ऐसी ही अनुभूति हो रही थी .
....तभी मुझे ध्यान आया कि  समाज के लिए जितना करना चाहिए ,क्या मै उतना कर रहा हूँ ?....नहीं !!
.....तो फिर दोष देने से ही काम नहीं होगा ...काम होगा कुछ करने से .....!!

बुरा जो देखन मैं चला,
बुरा ना दिखया कोय।
जो दिल ढूंढा आपना,
मुझसे बुरा ना कोय।।

 फिर नींद आने लगी .....और सोने चला गया .

वातावरण

हमारे चारों ओर की हवा, वस्तुएं और हमारा समाज जिसमें हम रहते हैं वातावरण का अभिन्न अंग हैं । ये हमारे जीवन के ढंग को पारिभाषित करने में अपनी अहम भूमिका निभाता है ....
प्रकृति से लडता हुआ मनुष्‍य बहुत ही विकसित अवस्‍था तक पहुंच चुका है , पर लोगों के जीवन स्‍तर के मध्‍य का फासला जितना बढता जा रहा है , भाग्‍य की भूमिका उतनी अहम् होती जा रही है....
हमारे समाज का वातावरण इतना दूषित हो गया है की, प्रत्येक व्यक्ति की सोच में नकारात्मक बातों ने डेरा जमा लिया है. शायद वह इस भ्रष्ट व्यवस्था से कुंठित हो चुका है .यही कारण है हम प्रत्येक व्यक्ति को सिर्फ संदेह की द्रष्टि से ही देखते हैं,जिसका भरपूर लाभ हमारे राजनेता उठाते हैं.वे अपने भ्रष्ट कारनामों को बड़ी सफाई से झुठला कर अपने विरोधियों को जनता की नजरों में भ्रष्ट एवं अपराधी सिद्ध करने में कामयाब हो जाते हैं.जनता उनके बहकावे में आकर क्रांति कारी व्यक्तियों के विरुद्ध अपनी सोच बना लेती है और नेताओं के काले कारनामों को भूल जाती है..जनता के लिए यह सोचना मुश्किल हो गया है की आज के भ्रष्ट युग में भी कोई इमानदार हो सकता है, कोई देश भक्त भी हो सकता है, जो देश के लिए निःस्वार्थ होकर संघर्ष कर सकता है....

नेशनल ओशियानिक एंड एटमोसफेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) के नेतृत्व में काम कर रही अंतरराष्ट्रीय टीम वातावरण में हाइड्रॉक्सिल रेडिकल के स्तर की गणना की। यह वातावरण के रासायनकि संतुलन में अहम भूमिका निभाता है।
वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि सालाना आधार पर हाइड्रॉक्सिल के स्तर में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है। इससे पहले कुछ अध्ययनों में कहा गया था कि इसके स्तर में 25 फीसदी तक का फर्क पड़ा है। लेकिन नया अध्ययन इस बात को खारिज करता है।

एनओएए के ग्लोबल मॉनिटरिंग विभाग में काम करने वाले मुख्य रिसर्चर स्टीफन मोंटत्सका बताते हैं, 'हाइड्रॉक्सिल के स्तर की नई गणना से वैज्ञानिकों को पता चला है कि वातावरण की खुद को साफ करने की क्षमता कितनी है। अब हम कह सकते हैं कि प्रदूषकों से छुटकारा पाने की वातावरण की क्षमता अब भी बनी हुई है। अब तक हम इस बात को तसल्ली से नहीं कह पा रहे थे।'

 प्रकृति के इस रम्य वातावरण को देख मन आह्लादित हो उठता है। जो प्रसन्नता मन को भोरकालीन वातावरण में मिलती है, वह अवर्णनीय है। सुबह पंक्षियों का कलरव, मंद गति से बहती शीतल हवा, बयार में शांत पेड़ पौधे अपने अप्रितम सौंदर्य का दर्शन देते हैं, दैनिक जीवन की शुरूआत से पहले बिल्कुल शांत और निर्वाण रूप होता है सुबह का।

पौधे अपने निर्विकार रूप में खडे होते हैं, पेड़ पौधों में जान होती है परंतु वे स्व से अपने पत्तियों को खड़का नहीं सकते, वे तो प्रकृति प्रदत्त वातावरण पर आश्रित होते हैं। भोर में पेड़ पौधों पर पड़ी ओस, मोती सा आभास देती है, और जलप्लवित पत्तियों से ऊर्जा संचारित होती है, वह ऊर्जा लेकर हम अपने जीवन की शुरूआत करते हैं।

 डायबिटीज रोगियों पर वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। आइए जानें डायबिटीज रोगियों को वातावरण कैसे प्रभावित करता है।

  • वातावरण कई तरह का हो सकता है। चाहे घर का माहौल हो, कार्यालय का माहौल हो। आसपास के लोगों का माहौल हो या फिर किस जगह पर कैसे आप जाते हैं इन सबका डायबिटिक के स्‍वास्‍थ्‍य पर बहुत असर पड़ता है।
  • धूम्रपान और नशीले पदार्थ- मान लीजिए कोई डायबिटिक मरीज ऐसे लोगों के साथ रहता है जो धूम्रपान बहुत करते हैं, इतना ही नहीं एल्‍‍कोहल और नशीले पदार्थों का सेवन भी करते हैं तो निश्चित रूप से डायबिटीज के रोगी पर इसका नकारात्म‍क असर पड़ेगा क्योंकि डायबिटीज मरीज ना सिर्फ इन चीजों का आदी हो सकता है बल्कि धूम्रपान का धुआं भी डायबिटीज मरीज को हृदय जैसी गंभीर बीमारियों का शिकार बना सकता है। अगर ये कहें कि डायबिटीज मरीज पर धूम्रपान का असर बुरा पड़ता है तो यह कहना गलत ना होगा।
  • जगह- यदि डायबिटीज मरीज किसी कारखाने में काम करता है या फिर ऐसी जगह काम करता है जहां केमिकल इत्यादि का काम होता है या फिर जहां बहुत अधिक गंदगी है तो इसका असर डायबिटीज मरीज को और अधिक बीमार बना सकता है और डायबिटीज रोगी को कई और बीमारियां या संक्रमण होने की आशंका बढ़ जाती है.
    • प्रदूषण- प्रदूषण का डायबिटीज मरीज के स्‍वास्‍थ्‍य  पर बहुत असर पड़ता है। अगर डायबिटीक पेशेंट प्रदूषण वाले स्थान पर रहता है तो डायबिटीज मरीज को सांस संबंधी बीमारियां होने की आंशका रहती है। इतना ही नहीं प्रदूषण के कारण डायबिटीज से होने वाली समस्याएं बढ़ जाती हैं है। यह बात शोधों में भी साबित हो चुकी है।



Monday, April 23, 2012

साधू बाबा


साधू बाबा भागे जा रहे थे और लड़के पीछा कर रहे थे ....एक और एक और ....
बाबा बच्चों को एक एक लचदाना दे रहे थे , अब  बच्चों की संख्या से परेशान होकर अब जल्दी से भाग जाना चाहते थे.बच्चे तो खैर बच्चे ही होते है वे खाकर फिर माँगना शुरू कर देते थे ....बाबा एक और ..एक और ...
बाबा गुस्सा हो गए और परेशान होकर बच्चों को भगाने लगे ....और गुस्सा होकर पत्थर मारकर  खदेड़ने लगे ....लड़के धीरे धीरे डर के कारण भाग गए ......बाबा का धैर्य टूट गया था .मै भी उन बच्चों में शामिल था ....किस्मत अच्छी थी ....बाबा का कोई पत्थर मुझे नहीं लगा.

Saturday, April 21, 2012

आज जरुरत है , आजाद ख़याल की...

आज जरुरत है , आजाद ख़याल की । आजाद ख़याल तो कभी कभी ही आते है । पुराने भरे पड़े है । उन्ही में से आते रहते है । पर जब आजाद ख्याल आते है तो हलचल मचा देते है । कभी कभी ये ख्याल मन बहलाने के तरकीब ही नजर आते है । आजाद ख़याल तो आ जाते है फ़िर दब जाते है । हालात से समझौता कर लेते है । जब यही करना था तो आने का कोई मतलब नही रह जाता । आओ तो पुरी तरह से आओ , नही तो आओ ही मत ।

Saturday, March 10, 2012

यदि तोर डाक शुने केऊ न आसे तबे एकला चलो रे।...

‘यदि तोर डाक शुने केऊ न आसे तबे एकला चलो रे।’.................
ये गाना ही नहीं बल्कि जीवन दर्शन है .कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर, एक व्यक्ति का नहीं एक युग और एक संस्था का नाम है .
गाँधी जी इसी दर्शन के सहारे नोवाखली में साम्प्रदायिकता के खिलाफ अकेले खड़े हो गए थे .
इस जीवन दर्शन से प्रेरणा प्राप्त होती है .एकला चलो रे ...कामयाबी और मानसिक संतुष्टि का दूसरा नाम है .

यदि तोर डाक शुने केऊ न आसे
तबे एकला चलो रे।

एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे!
यदि केऊ कथा ना कोय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
यदि सबाई थाके मुख फिराय, सबाई करे भय-
तबे परान खुले
ओ, तुई मुख फूटे तोर मनेर कथा एकला बोलो रे!

यदि सबाई फिरे जाय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
यदि गहन पथे जाबार काले केऊ फिरे न जाय-
तबे पथेर काँटा
ओ, तुई रक्तमाला चरन तले एकला दलो रे!

यदि आलो ना घरे, ओरे, ओरे, ओ अभागा-
यदि झड़ बादले आधार राते दुयार देय धरे-
तबे वज्रानले
आपुन बुकेर पांजर जालियेनिये एकला चलो रे!

Wednesday, March 7, 2012

ऐ मनुष्य

ऐ मनुष्य,
कब तक शोक मनायेगा ...और ज़िन्दगी लुटती जाएगी
..फिर शोक कैसा ?ये शोक नहीं चुभन है .
ज़िन्दगी भर का दर्द है .टूटे हुए तारों का लोभ ...
अब तो छोड़ दो !
हाथ में आई चांदनी को समेट लो ...
एक सितारा जग मगा रहा ...
आशा करो वो बुझाने पाए नहीं ...
ऐ मनुष्य,
कब तक शोक मनायेगा ...और ज़िन्दगी लुटती जाएगी

आशा के पर लग गए और तुम अभी उड़े नहीं
क़यामत का इन्तजार कर रहे क्या ?
प्यारी चीज थी तो क्या हुआ ..
अब तो रहा नहीं ,
उस प्यार का लोभ...
अब तो छोड़ दो !

Wednesday, February 29, 2012

जैसे मछली को जल में रहना ही प्रिय है, वैसे ही आत्मा आनंद में ही रहती है....

वर्तमान दौर की युवा पीढ़ी मुझे ज्यादा ऊर्जावान लगती है। ये खुद को ज्यादा अच्छे से प्रस्तुत करते हैं। पुराने समय के बच्चों की तुलना में आज के बच्चे ज्यादा प्रोफेशनल भी हैं। अगर संगीत के क्षेत्र की बात की जाए, तो इसमें भी मुझे बहुत ज्यादा उत्साही युवक दिखाई पड़ते हैं, लेकिन इनके साथ समस्या एक ही है। इनमें नतीजे की जल्दी है। ये हर चीज जल्दी पाना चाहते हैं। सामान्यत: पैसा-प्रसिद्धि की चाह सभी को रहती है और यह सब समय आने पर मिलता भी है, लेकिन बड़े कलाकार जैसा पहनते हैं या जैसा करते हैं- वैसा करने की कोशिश कहां तक सही है? व्यक्ति को अपनी हैसियत पता होनी चाहिए। युवाओं के साथ यही परेशानी है कि बजाय रियाज करने के, उनका ध्यान धन-शोहरत पाने पर रहता है। ......हरिप्रसाद चौरसिया 


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 एक बार अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन शहर का जायजा लेने निकले। रास्ते में एक जगह इमारत बन रही थी। वह कुछ देर रुक गए और निर्माण कार्य को गौर से देखने लगे। उन्होंने देखा कि कई मजदूर एक बड़ा-सा पत्थर उठाकर इमारत पर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। पत्थर बहुत ही भारी था, इतने मजदूरों से भी उठ नहीं पा रहा था। पास खड़ा ठेकेदार मजदूरों को पत्थर न उठा पाने के लिए डांट रहा था। वॉशिंगटन ने ठेकेदार के पास जाकर कहा, ‘मजदूरों की मदद करो। एक और आदमी अपना हाथ लगा दे तो शायद पत्थर उठ जाएगा।’ ठेकेदार वॉशिंगटन को पहचान नहीं पाया और रौब से बोला, ‘मैं दूसरों से
काम लेता हूं, मैं मजदूरी नहीं करता।’ यह जवाब सुनकर वॉशिंगटन घोड़े से उतरे और पत्थर उठाने में मजदूरों की मदद करने लगे। उनके सहारा देते ही पत्थर उठ गया और आसानी से ऊपर चला गया। अब वॉशिंगटन वापस अपने घोड़े पर आकर बैठ गए और बोले, ‘सलाम ठेकेदार साहब, भविष्य में कभी आपको एक व्यक्ति की कमी मालूम पड़े तो राष्ट्रपति भवन में आकर जॉर्ज वॉशिंगटन को याद कर लेना।’ यह सुनते ही ठेकेदार राष्ट्रपति के पैरों पर गिर पड़ा और अपने र्दुव्‍यवहार के लिए क्षमा मांगने लगा। वॉशिंगटन ने उससे विनम्रता से कहा, ‘मेहनत करने से कोई भी आदमी छोटा या बड़ा नहीं हो जाता। मजदूरों की मदद करने से तुम उनका सम्मान हासिल करोगे।


याद रखो, मदद के लिए सदैव तैयार रहने वाले को ही समाज में प्रतिष्ठा हासिल होती है। इसलिए जीवन में ऊंचाइयां हासिल करने के लिए व्यवहार में विनम्रता का होना
बेहद जरूरी है।’ उस दिन के बाद से ठेकेदार के व्यवहार में आश्चर्यजनक रूप से बदलाव आया। वह सभी के साथ अत्यंत नम्रता से पेश आने लगा।

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लोग गुरुमंत्र तो लेते हैं लेकिन अक्सर उसके पीछे अपनी शंकाएं भी चिपका देते हैं। मन में अविश्वास का भाव आया कि मंत्र का असर ख़त्म हुआ समझिए। मन का विश्वास ही एक साधारण से मंत्र को चमत्कारी बना सकता है। अगर गुरु से मंत्र दीक्षा में लिया है तो उसमे पूरा भरोसा रखिये। विश्वास से बड़ा कोई मंत्र नहीं है।
शंका करना मन का स्वभाव होता है। किसी पर अविश्वास करके मन बड़ा प्रसन्न रहता है। इसीलिए लोग गुरु के शब्दों में भी संदेह ढूंढ़ते हैं। सिद्ध गुरु आरंभ में शब्द ऐसे बोलते हैं कि मन के द्वार बंद न हो जाएं। गुरुमंत्र में ऐसा प्रभाव होता है कि वह मन में प्रवेश करता है और फिर धीरे-धीरे उसकी सफाई करता है।
शक्तिपात गुरु स्वामी शिवोमतीर्थजी महाराज कहा करते थे कि मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा विकसित हो गया है कि वह हर बात में शंका करता है। उससे कोई कितनी भी सहानुभूति करे, वह उसमें भी संशय करता है। अध्यात्म के विषय में उसने केवल सुना ही सुना है, अनुभव नहीं किया। इसलिए इस संबंध में वह और भी अधिक शंकालु हो गया है।
जब तक उसके मन में गुरु वचनों पर दृढ़ श्रद्धा नहीं होती, अंतर की शंका नीचे नहीं दबती। गुरु इस बात से अच्छी तरह परिचित होते हैं। अत: वह अपनी कृपा से शिष्य को चेतना शक्ति की जागृति का प्रत्यक्ष अनुभव करा देते हैं। चित्त में एक चिंगारी सुलग उठती है, जो आध्यात्मिक जागृति के लिए बीज का काम करती है।
सूर्य के फैलने वाले प्रकाश के पूर्व किरण होती है, जिससे साधक को ज्ञात हो जाता है कि चित्त में चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश होने वाला है, जिससे उसके मन में गुरु के प्रति, साधन के प्रति, अनुभव के प्रति श्रद्धा पैदा हो उठती है। श्रद्धा ही साधन का आधार है तथा सभी शंकाओं को दूर करने में मददगार है। श्रद्धा को केवल कर्मकांड से बलवती नहीं बनाया जा सकता, इसके लिए ध्यान बहुत जरूरी है। लगातार ध्यान करने से जो अनुभव होते हैं, उससे श्रद्धा परिष्कृत होती है।

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बोलना और सुनना हमारी फितरत में शामिल है। कुछ लोगों को बोलने की बीमारी-सी हो जाती है। इसी तरह सुनने का भी नशा होता है। जब सुनने की इच्छा खूब होने लगती है तो आदमी दूसरों की बातों में रुचि लेने लगता है। क्या सुना जाए, भक्ति के क्षेत्र में यह भी आवश्यक है, क्योंकि हमारे जीवन में और इस ब्रहांड में बहुत कुछ अनसुना भी मौजूद है।


भजन, कीर्तन आध्यात्मिक प्रतिध्वनि होते हैं। इनके बोल जागरूकता के लिए प्रेरक बन जाते हैं। जिन्हें शांति की तलाश हो, वे अपने श्रवण, रुचि और क्षमता पर थोड़ा ध्यान दें।


ऐसा न सुनें, जो आवश्यक न हो और ऐसा जरूर सुनें, जो हमें और गहराई में ले जाए। इसलिए मेडिटेशन के समय शास्त्रीय संगीत की कुछ धुनें बड़ी काम आती हैं। कभी-कभी तो हमें ऐसा लगता है, जैसे ये स्वर हमें हौले-हौले हमारे ही भीतर गहरे ले जा रहे हों।


अंदर जाते समय जरा भी लड़खड़ाहट हो तो संगीत हमें संभाल लेता है। इसे ही साउंड ऑफ साइलेंस कहेंगे। थोड़ा समय इसे सुनने का प्रयास करें, क्योंकि हम सब शून्य से घबराते हैं। थोड़ा समय आंखें बंद करके जब बैठेंगे तो जो मौन, शून्य भीतर घटता है, उससे घबराहट होगी, क्योंकि आंखें बंद करते ही अंधेरा छा जाता है और अंधेरे में जैसे हम चलते समय किसी भी चीज से टकराते हैं, वैसे ही भीतर के अंधेरे में भी हड़बड़ाहट शुरू होती है।


थोड़ा-थोड़ा अभ्यास रोज करें। थोड़ी देर अधिक अंधेरे में रहो तो उस स्थान पर चलने का अभ्यास हो जाता है। आंखें बंद हों और कानों से कुछ ऐसा सुनें, जो हमें अपने ही भीतर उस अनसुने की ओर ले जाएगा, जिसे सुनकर गहरी शांति मिलेगी।

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कहना आसान है कि कर्म करते रहो, फल की चिंता मत करो। पहले तो इसी पंक्ति में संशोधन कर लें। फल की चिंता जरूर करें, क्योंकि बिना चिंता पाले कर्म की योजना, कर्म में परिश्रम नहीं हो पाएगा। इतना जरूर ध्यान रखें कि फल में आसक्ति न हो। दिक्कत आसक्ति से शुरू होती है, लेकिन ऐसा करना भी कठिन मालूम पड़ता है।


आजकल तो पहले फल निर्धारित किया जाता है, फिर आदमी कर्म करता है। इसीलिए जब उसे वांछित फल नहीं मिलता, तब वह परेशान होता है। फल की आसक्ति से मुक्त होने के लिए हमें अपने मनुष्य होने की रचना को समझना होगा। हम दो बातों से मिलकर बने हैं, दैवीय तत्व और भौतिक तत्व।


हमारी आत्मा दैवीय तत्व का हिस्सा है, मन भौतिक तत्व से जुड़ा है और तन इन दोनों का मिश्रण है। मन का स्वभाव है कि उसे सबकुछ चाहिए, बेलगाम चाहिए। इसीलिए मन या तो भविष्य की सोचता है या भूतकाल की, उसे वर्तमान में रुचि नहीं है। यह तमोगुणी स्वभाव है। आत्मा के भी तीन गुण होते हैं, जिन्हें सत्, चित् और आनंद कहा गया है।


जैसे मछली को जल में रहना ही प्रिय है, वैसे ही आत्मा आनंद में ही रहती है। जो आनंद में रहता है, वह भविष्य में फल की आसक्ति नहीं करता। इसलिए कर्म करते समय शरीर पूरा परिश्रम करे, लेकिन हम आत्मा की ओर मुड़े रहें, केवल मन पर न टिकें। और इसीलिए योगियों ने ध्यान को महत्व दिया है। ध्यान का अर्थ है वर्तमान पर टिकना। कई लोग पूछते हैं - क्या ध्यान करने से शांति मिलेगी? यह प्रश्न ही ध्यान में बाधा है। आप सिर्फ क्रिया करिए और अपने आप वह मिलेगा, जो सही है।


Thursday, February 23, 2012

गीता और कुरआन से पहले.......

 कठिन  शब्द नहीं जानता ,पर इंसान को पहचानता हूँ ....उन भूखे लोगो के लिए मन में कुछ विचार है जिन्हें करना है .जिंदगी के दौड़ में वे शायद पीछे रह गए ....गीता और कुरआन से पहले उन्हें पढना चाहता हूँ.

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मै और भाग  नहीं सकता या फिर भागना चाहता ही नहीं ....कुछ ऐसा हुआ है, भागने की लालसा ख़त्म हो गयी ....चूहा दौड़ में अब मन नहीं रमता  .....या तो मै बहुत पीछे छुट गया या फिर मेरी सोच जमाने से आगे है .......कुछ भी हो चूहा दौड़ अब मन नहीं रमता ......

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सच बोल कर भी लोग मजे से रह लेते है ...तो फिर झूठ बोल जमता नहीं ....सत्यवादी शायद नहीं हूँ ...पर सत्य के आगोश में जाना चाहता हूँ....

Tuesday, February 21, 2012

रंगीली दुनिया बेरंग क्यों लगती है ?

रंगीली दुनिया कभी बेरंग क्यों लगती है ?
ज़िन्दगी इतनी छोटी है ,फ़िर लम्बी क्यों लगती है ?
इंसान दयालु से हैवान कैसे बन जाता है ?
कोई क्यों किसी को छोड़ कर चला जाता है ?
.....अंत में सब शून्य ही क्यों दीखता है ?

Thursday, January 26, 2012

आज गणतंत्र दिवस है ..

आज गणतंत्र दिवस है ....और सभी लोग इसे पार्क में घुमने और लंच करने का एक सुनहला अवसर मान रहे है ...हाँ कुछ लोग ऐसे भी है जो इसे एक महान दिन के रूप में याद कर देश के उज्जवल भविष्य का सपना देख रहे है ...और अपने स्तर से कुछ प्रयास भी कर रहे है ...हम और आप इसी वर्ग के सद्श्य है ....