Monday, April 20, 2009

आकाश

आकाश को देख रहा हूँ । कोई छोर नही दीखता । इतना फैला हुआ है ...... डर लग लगता है ।
सोचता हूँ । हमारे अलावा इस ब्रह्मांड में कही और जीवन है ???
अगर नही तो रोंगटे खड़े हो जाते है । इतने बड़े ब्रह्माण्ड में हम अकेले है !विश्वास नही होता ...लगता है , कोई तो जरुर होगा ।
फ़िर सोचता हूँ । आकाश को इतना फैला हुआ नही होना चाहिए । कुछ तो बंधन जरुरी है । भटकने का डर लगा रहता है ।

10 comments:

  1. कुछ चीज़ें हैं जिन्हें परिभाषाओं और सीमाओं में बांधना ठीक नही है | प्रेम, आकाश की उन्मुक्तता, पंछियों की उड़ान आदि अंतहीन ही ठीक है | रचना के लिए बधाई मार्क जी

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  2. वाह!! अकेलेपन को कभी इस तरह तो सोचा ही नहीं था!!

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  3. अच्छे विचार हैं ...इन्हें कविता में पिरोइए ....!!

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  4. जब हम भीड़ मे होते है तो अकेले होते है .और जब भीड़ मे होते है
    तो अकदम अकेले होते है |

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  5. aap sabka shukriya ..aapne protsaahit kiya...harkirat jee ek din jarur yahi bhaaw kavita ke rup me dhaal sakuga..aap sabka aashirwaad aur protsaahan milta rahe...

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  6. आकाश को लेकर आपने कुछ हट कर कल्पना की है, अच्छा लगा .
    -विजय

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  7. डर के आगे जीत है। डर छोडें, आगे बढें।

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    TSALIIM.
    -SBAI-

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