कुछ मिटटी और कुछ ईंट की वो इमारत ,
वो रास्ते जिनपर कभी दौडा करते थे ,
सबकुछ याद है ।
गंवई गाँव के लोग कितने भले लगते थे ,
सीधा सपाट जीवन , कही मिलावट नही ,
दूर - दूर तक खेत , जिनमे गाय -भैसों को चराना ,
वो गोबर की गंध व भैसों को चारा डालना ,
सबकुछ याद है ।
गाय की दही न सही , मट्ठे से ही काम चलाना ,
मटर की छीमी को गोहरे की आग में पकाना ,
सबकुछ याद है ।
वो सुबह सबेरे का अंदाज , गायों का रम्भाना ,
भागते हुए नहर पर जाना और पूरब में लालिमा छाना ,
सबकुछ याद है ।
बैलों की खनकती हुई घंटियाँ , दूर - दूर तक फैली हरियाली ,
वो पीपल का पेड़ और छुपकर जामुन पर चढ़ जाना ,
सबकुछ याद है ।
यादों से लबरेज़ कविता. सुन्दर है मार्क जी. कब से मेरे ब्लॉग की तरफ़ नहीं आये आप?
ReplyDeleteगाँव की महक है आपकी रचना में .......... ताज़गी है जो दिल में दूर तक घर कर जाती है .............
ReplyDeletebahut khoob sir ji....
ReplyDeleteis baar aapne kuch hat ke nya likha hai achha lga.
ReplyDeleteAapne ek rachana yaad dila dee.." Wo ghar bulata hai..."
ReplyDeleteLaga aapki rachna mujhe bhee usee gaanv me le gayi..
mitti ki mahak dilon mein hi basa karti hai
ReplyDeleteaur aapki rachna bhi bas gayi hai ...
महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लगा ! बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने! बधाई!
Holi mubarak ho!
ReplyDeleteSondhi si khushboo liye aapki rachna bahut bhai!!
ReplyDeleteYaad hai.....
Phirse ekbaar aapke blog pe aayi hun..mere comments hain,lekin aaj padhte,padhte phir mere bachpanse juda ek geet yaad aa gaya..'Bailon ke galeme jab ghungru jeevan ka raag sunate hai...' ya phir sunke rehetkee awazen,yun lage kahin shahnayi baje...'
ReplyDelete' गंवई गाँव के लोग कितने भले लगते थे ,
ReplyDeleteसीधा सपाट जीवन , कही मिलावट नही'
- काश आधुनिक शहरी भी ऐसे ही हो पाते.हालांकि गाँव में भी अब वह निश्छलता नजर नहीं आती. कहीं कहीं तो वे लोग शहरियों को भी मात दे रहे हैं
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Kya baat hai,aapne bade dinon se kuchh likha nahi?
ReplyDeletenice yaar
ReplyDeleteYaar, Aapne ne to mere gavo meine bitaye pal yaad dila diye.
ReplyDeleteExcellent Post!!!