आकाश को देख रहा हूँ । कोई छोर नही दीखता । इतना फैला हुआ है ...... डर लग लगता है ।
सोचता हूँ । हमारे अलावा इस ब्रह्मांड में कही और जीवन है ???
अगर नही तो रोंगटे खड़े हो जाते है । इतने बड़े ब्रह्माण्ड में हम अकेले है !विश्वास नही होता ...लगता है , कोई तो जरुर होगा ।
फ़िर सोचता हूँ । आकाश को इतना फैला हुआ नही होना चाहिए । कुछ तो बंधन जरुरी है । भटकने का डर लगा रहता है ।
यह डर स्वाभाविक है।
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खुशियों का विज्ञान-3
ऊँट का क्लोन
कुछ चीज़ें हैं जिन्हें परिभाषाओं और सीमाओं में बांधना ठीक नही है | प्रेम, आकाश की उन्मुक्तता, पंछियों की उड़ान आदि अंतहीन ही ठीक है | रचना के लिए बधाई मार्क जी
ReplyDeleteवाह!! अकेलेपन को कभी इस तरह तो सोचा ही नहीं था!!
ReplyDeletebhari duniya me bhi akelapan...sahi kaha aapne..
ReplyDeleteअच्छे विचार हैं ...इन्हें कविता में पिरोइए ....!!
ReplyDeleteजब हम भीड़ मे होते है तो अकेले होते है .और जब भीड़ मे होते है
ReplyDeleteतो अकदम अकेले होते है |
aap sabka shukriya ..aapne protsaahit kiya...harkirat jee ek din jarur yahi bhaaw kavita ke rup me dhaal sakuga..aap sabka aashirwaad aur protsaahan milta rahe...
ReplyDeletesudar prasututi ke liye shukria
ReplyDeleteआकाश को लेकर आपने कुछ हट कर कल्पना की है, अच्छा लगा .
ReplyDelete-विजय
डर के आगे जीत है। डर छोडें, आगे बढें।
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TSALIIM.
-SBAI-