बचपन के दिन याद आ रहे है। तब बहुत ही छोटा था। । हमारे बथान में मिटटी के घर के अन्दर एक गौरैया ने घोसला बना लिया था। मै उसे रोज देखता … उसे सिर्फ अपना समझता … ऐसा महसूस होता था की उसने मेरे बथान वाले घर को चुन कर मुझ पर बड़ा एहसान किया है। मै और मेरा भाई उसके परिवार के लिए रोज कुछ अनाज के दाने वहां पर रख देते थे.…. उनका चहचहाना आज भी मेरे दिलों दिमाग में बसा हुआ है। ज़माना कितना बदल गया आज गौरैया इक्का दुक्का ही कहीं नज़र आ जाती है.आज तो गाँव जाने पर भी उन गौरैया का दर्शन दुर्लभ हो गया है।
अब चहचहाना नहीं होता उनका
नहीं आती मेरे कान में
यही बात है,
अब मन नहीं करता
जाने को अपने बथान में !!!
गाँव में पहले एक गाना भी सुनने को मिल जाता था.….
“राम जी की चिरिया, रामजी का खेत।।
खाय ले चिरिया, भर-भर पेट।।
अब यह गाना कहीं भी सुनने को नहीं मिलता। सच!! कितना बदल गया सबकुछ …
एक अनुमान के अनुसार आज गौरैयों की ९० फीसदी आबादी ख़त्म हो गयी है। पक्षीविज्ञानी एवं वन्यप्राणी विशेषज्ञों का यह मानना है कि पक्के मकानों का बढ़ता चलन, लुप्त होते बाग-बगीचे, खेतों में कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग तथा भोजन स्त्रोतों की उपलब्धता में कमी इत्यादि इनकी घटती आबादी के लिए जिम्मेवार हैं।
गौरैया बहुत नाजुक होती है। अब हमारे घर में हरे पेड़-पौधे नहीं रहे। बिजली-टेलीफोन के तारों के फैले जाल में फंसकर घायल होने से उसे डर लगता है। हमारे मोबाइल फोन और इसके लिए लगे ऊंचे-ऊंचे टावरों से कुछ ऐसी तरंगे निकलती हैं, जो हमें तो नुकसान पहुंचाती ही है. उन्हें भी नुकसान पहुंचाती है। बच्चे पैदा करने की उनकी क्षमता घटाती है। उन्हें बीमार बनाती है। अब वह बिजली के मीटर बक्से की खाली जगह में भी घोसला नहीं बनाती। पहले वह कहीं भी थोड़ी ऊंची जगह देखकर घोसला बना दिया करती थी। अब शायद डरती है कि कोई उजाड़ न दे।
यह नन्ही-सी चिड़िया सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में तेजी से दुर्लभ होती जा रही है। पिछले कुछ सालों में गौरैया की संख्या में बड़ी कमी देखी गई है। लगभग पूरे यूरोप में सामान्य रूप से दिखाई पड़ने वाली इन चिड़ियों की संख्या अब घट रही है। हालात इतने खराब हो गए हैं कि नीदरलैंड (हॉलैंड) में इनकी घटती संख्या के कारण इन्हें रेड लिस्ट में रखा गया है। कमोबेश यही हालत ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चेक गणराज्य, बेल्जियम, इटली तथा फिनलैंड के शहरी इलाकों में दर्ज की गई है।
संक्षेप में , आवासीय ह्रास, अनाज में कीटनाशकों के इस्तेमाल, आहार की कमी और मोबाइल फोन तथा मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली सूक्ष्म तरंगें गौरैया के अस्तित्व के लिए खतरा बन रही हैं।पक्षी विशेषज्ञों का कहना है कि गौरैया के लापता होने के कई कारण हैं जिनमें मोबाइल के टावर प्रमुख हैं। मोबाइल टावर 900 से 1800 मैगाहर्टज की आवृति उसर्जित करते हैं जिससे निकलने वाली विद्युत चुंबकीय विकीरण से गौरैया का नर्वस सिस्टम प्रभावित होता है इससे दिशा पहचानने की उसकी क्षमता प्रभावित होती है आम तौर से 10 से 15 दिनों तक अण्डा सेने के बाद गौरैया के बच्चे निकल आते है लेकिन मोबाइल टावरों के पास 30 दिन सेने के बावजूद अण्डा नहीं फूटता।
इसका मूल स्थान एशिया-यूरोप का मध्य क्षेत्र माना जाता है। मानव के साथ रहने की आदी यह चिड़िया मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ विश्व के बाकी हिस्सों में जैसे उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड में भी पहुँच गई।इसकी खासियत है कि यह अपने को परिस्थिति के अनुरूप ढालकर अपना घोंसला, भोजन उनके अनुकूल बना लेती है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण यह विश्व में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली चहचहाती चिड़िया बन गई।
गौरैया अपना घोंसला बनाने के लिए साधारणतः वनों, मानव-निर्मित एकांत स्थानों या दरारों, पुराने मकानों का बरामदा, बगीचा इत्यादि की तलाश करती हैं। गौरैया अकसर अपना घर मानव आबादी के निकट ही बनाती हैं।
भारत के हिन्दीभाषी क्षेत्रों में यह गौरैया के नाम से लोकप्रिय है। तमिलनाडु तथा केरल में कूरूवी, तेलुगू में पिच्चूका, कन्नड़ में गुब्बाच्ची, गुजरात में चकली, मराठी में चिमानी, पंजाब में चिड़ी, जम्मू तथा कश्मीर में चेर, पश्चिम बंगाल में चराई पाखी, उडीसा में घरचटिया, उर्दू में चिड़िया तथा सिंधी में इसे झिरकी कहा जाता है।
गौरैया को बचाने के लिए भारत सहित अंतरराष्ट्रीय स्तर के कई संस्थानों ने मिल कर हर साल बीस मार्च को ‘विश्व गौरैया दिवस’ मनाने की घोषणा की थी और 2010 में पहली बार ‘विश्व गौरैया दिवस’ मनाया गया। इसी क्रम में भारतीय डाक विभाग ने नौ जुलाई 2010 को गौरैया पर डाक टिकट जारी किए। कम होती गौरैया की संख्या को देखते हुए अक्तूबर 2012 में दिल्ली सरकार ने इसे राज्य पक्षी घोषित किया।
यदि इसके संरक्षण के उचित प्रयास नहीं किए गए तो हो सकता है कि गौरैया इतिहास की चीज बन जाए और भविष्य की पीढ़ियों को यह देखने को ही न मिले।ब्रिटेन की ‘रॉयल सोसायटी ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ बर्डस’ ने भारत से लेकर विश्व के विभिन्न हिस्सों में अनुसंधानकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययनों के आधार पर गौरैया को ‘रेड लिस्ट’ में डाला है।आंध्र विश्वविद्यालय द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक गौरैया की आबादी में काफी कमी आई है। यह ह्रास ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्रों में हुआ है।
देश के ग्रामीण क्षेत्र में गौरैया बचाओ अभियान के बारे जागरूकता फैलाने के लिए रेडियो और समाचारपत्रों का उपयोग किया जा रहा है। कुछ संस्थाएं गौरैया के लिए घोंसले बनाने के लिए भी आगे आई हैं। इसके तहत हरे नारियल में छेद कर, अखबार से नमी सोख कर उस पर कूलर की सूखी घास लगा कर बच्चों को घोंसला बनाने का हुनर सिखाया जा रहा है।
सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद मोहम्मद ई दिलावर द्वारा शुरू की गई पहल पर ही आज बहुत से लोग गौरैया बचाने की कोशिशों में जुट रहे हैं। लोगों में गौरैया को लेकर जागरूकता पैदा किए जाने की जरूरत है क्योंकि कई बार लोग अपने घरों में इस पक्षी के घोंसले को बसने से पहले ही उजाड़ देते हैं। कई बार बच्चे इन्हें पकड़कर पहचान के लिए इनके पैर में धागा बांधकर इन्हें छोड़ देते हैं। इससे कई बार किसी पेड़ की टहनी या शाखाओं में अटक कर इस पक्षी की जान चली जाती है।
गौरैया को फिर से बुलाने के लिए लोगों को अपने घरों में कुछ ऐसे स्थान उपलब्ध कराने चाहिए जहां वे आसानी से अपने घोंसले बना सकें और उनके अंडे तथा बच्चे हमलावर पक्षियों से सुरक्षित रह सकें। कई बार बच्चे गौरैया को पकड़कर इसके पंखों को रंग देते हैं जिससे उसे उड़ने में दिक्कत होती है और उसके स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर पड़ता है।मुझे याद है। …. बचपन में जानकारी के अभाव में हम ही ऐसा कर चुके है।
अब गौरैया को बचाने के लिए युद्ध स्तर पर अभियान चलाये जाने की जरुरत है। इस कार्य में युवाओं को साथ लेकर समाज में गौरैया के माध्यम से पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने की कोशिश होनी चाहिए। गौरैया सिर्फ हमारे लिए एक चिड़िया नहीं है बल्कि भारतीय संस्कृति की एक अमुल्य धरोहर है।
अब चहचहाना नहीं होता उनका
वो मधुर आवाज़
नहीं आती मेरे कान में
यही बात है,
अब मन नहीं करता
जाने को अपने बथान में !!!
गाँव में पहले एक गाना भी सुनने को मिल जाता था.….
“राम जी की चिरिया, रामजी का खेत।।
खाय ले चिरिया, भर-भर पेट।।
एक अनुमान के अनुसार आज गौरैयों की ९० फीसदी आबादी ख़त्म हो गयी है। पक्षीविज्ञानी एवं वन्यप्राणी विशेषज्ञों का यह मानना है कि पक्के मकानों का बढ़ता चलन, लुप्त होते बाग-बगीचे, खेतों में कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग तथा भोजन स्त्रोतों की उपलब्धता में कमी इत्यादि इनकी घटती आबादी के लिए जिम्मेवार हैं।
गौरैया बहुत नाजुक होती है। अब हमारे घर में हरे पेड़-पौधे नहीं रहे। बिजली-टेलीफोन के तारों के फैले जाल में फंसकर घायल होने से उसे डर लगता है। हमारे मोबाइल फोन और इसके लिए लगे ऊंचे-ऊंचे टावरों से कुछ ऐसी तरंगे निकलती हैं, जो हमें तो नुकसान पहुंचाती ही है. उन्हें भी नुकसान पहुंचाती है। बच्चे पैदा करने की उनकी क्षमता घटाती है। उन्हें बीमार बनाती है। अब वह बिजली के मीटर बक्से की खाली जगह में भी घोसला नहीं बनाती। पहले वह कहीं भी थोड़ी ऊंची जगह देखकर घोसला बना दिया करती थी। अब शायद डरती है कि कोई उजाड़ न दे।
यह नन्ही-सी चिड़िया सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में तेजी से दुर्लभ होती जा रही है। पिछले कुछ सालों में गौरैया की संख्या में बड़ी कमी देखी गई है। लगभग पूरे यूरोप में सामान्य रूप से दिखाई पड़ने वाली इन चिड़ियों की संख्या अब घट रही है। हालात इतने खराब हो गए हैं कि नीदरलैंड (हॉलैंड) में इनकी घटती संख्या के कारण इन्हें रेड लिस्ट में रखा गया है। कमोबेश यही हालत ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चेक गणराज्य, बेल्जियम, इटली तथा फिनलैंड के शहरी इलाकों में दर्ज की गई है।
संक्षेप में , आवासीय ह्रास, अनाज में कीटनाशकों के इस्तेमाल, आहार की कमी और मोबाइल फोन तथा मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली सूक्ष्म तरंगें गौरैया के अस्तित्व के लिए खतरा बन रही हैं।पक्षी विशेषज्ञों का कहना है कि गौरैया के लापता होने के कई कारण हैं जिनमें मोबाइल के टावर प्रमुख हैं। मोबाइल टावर 900 से 1800 मैगाहर्टज की आवृति उसर्जित करते हैं जिससे निकलने वाली विद्युत चुंबकीय विकीरण से गौरैया का नर्वस सिस्टम प्रभावित होता है इससे दिशा पहचानने की उसकी क्षमता प्रभावित होती है आम तौर से 10 से 15 दिनों तक अण्डा सेने के बाद गौरैया के बच्चे निकल आते है लेकिन मोबाइल टावरों के पास 30 दिन सेने के बावजूद अण्डा नहीं फूटता।
इसका मूल स्थान एशिया-यूरोप का मध्य क्षेत्र माना जाता है। मानव के साथ रहने की आदी यह चिड़िया मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ विश्व के बाकी हिस्सों में जैसे उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड में भी पहुँच गई।इसकी खासियत है कि यह अपने को परिस्थिति के अनुरूप ढालकर अपना घोंसला, भोजन उनके अनुकूल बना लेती है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण यह विश्व में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली चहचहाती चिड़िया बन गई।
गौरैया अपना घोंसला बनाने के लिए साधारणतः वनों, मानव-निर्मित एकांत स्थानों या दरारों, पुराने मकानों का बरामदा, बगीचा इत्यादि की तलाश करती हैं। गौरैया अकसर अपना घर मानव आबादी के निकट ही बनाती हैं।
भारत के हिन्दीभाषी क्षेत्रों में यह गौरैया के नाम से लोकप्रिय है। तमिलनाडु तथा केरल में कूरूवी, तेलुगू में पिच्चूका, कन्नड़ में गुब्बाच्ची, गुजरात में चकली, मराठी में चिमानी, पंजाब में चिड़ी, जम्मू तथा कश्मीर में चेर, पश्चिम बंगाल में चराई पाखी, उडीसा में घरचटिया, उर्दू में चिड़िया तथा सिंधी में इसे झिरकी कहा जाता है।
गौरैया को बचाने के लिए भारत सहित अंतरराष्ट्रीय स्तर के कई संस्थानों ने मिल कर हर साल बीस मार्च को ‘विश्व गौरैया दिवस’ मनाने की घोषणा की थी और 2010 में पहली बार ‘विश्व गौरैया दिवस’ मनाया गया। इसी क्रम में भारतीय डाक विभाग ने नौ जुलाई 2010 को गौरैया पर डाक टिकट जारी किए। कम होती गौरैया की संख्या को देखते हुए अक्तूबर 2012 में दिल्ली सरकार ने इसे राज्य पक्षी घोषित किया।
देश के ग्रामीण क्षेत्र में गौरैया बचाओ अभियान के बारे जागरूकता फैलाने के लिए रेडियो और समाचारपत्रों का उपयोग किया जा रहा है। कुछ संस्थाएं गौरैया के लिए घोंसले बनाने के लिए भी आगे आई हैं। इसके तहत हरे नारियल में छेद कर, अखबार से नमी सोख कर उस पर कूलर की सूखी घास लगा कर बच्चों को घोंसला बनाने का हुनर सिखाया जा रहा है।
सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद मोहम्मद ई दिलावर द्वारा शुरू की गई पहल पर ही आज बहुत से लोग गौरैया बचाने की कोशिशों में जुट रहे हैं। लोगों में गौरैया को लेकर जागरूकता पैदा किए जाने की जरूरत है क्योंकि कई बार लोग अपने घरों में इस पक्षी के घोंसले को बसने से पहले ही उजाड़ देते हैं। कई बार बच्चे इन्हें पकड़कर पहचान के लिए इनके पैर में धागा बांधकर इन्हें छोड़ देते हैं। इससे कई बार किसी पेड़ की टहनी या शाखाओं में अटक कर इस पक्षी की जान चली जाती है।
गौरैया को फिर से बुलाने के लिए लोगों को अपने घरों में कुछ ऐसे स्थान उपलब्ध कराने चाहिए जहां वे आसानी से अपने घोंसले बना सकें और उनके अंडे तथा बच्चे हमलावर पक्षियों से सुरक्षित रह सकें। कई बार बच्चे गौरैया को पकड़कर इसके पंखों को रंग देते हैं जिससे उसे उड़ने में दिक्कत होती है और उसके स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर पड़ता है।मुझे याद है। …. बचपन में जानकारी के अभाव में हम ही ऐसा कर चुके है।
अब गौरैया को बचाने के लिए युद्ध स्तर पर अभियान चलाये जाने की जरुरत है। इस कार्य में युवाओं को साथ लेकर समाज में गौरैया के माध्यम से पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने की कोशिश होनी चाहिए। गौरैया सिर्फ हमारे लिए एक चिड़िया नहीं है बल्कि भारतीय संस्कृति की एक अमुल्य धरोहर है।
भावनात्मक एवं तथ्यपरक आलेख!
ReplyDeleteयहाँ स्वीडन में बहुत देखा है इन्हें, देखकर अपनापे का अनुभव होता है, देश की याद आती है!
इनके बचाव हेतु अभियान चलने ही चाहिए, जो हमसे हो सके हम भी करें!
आलेख के माध्यम से तथ्यों को रखने के लिए आभार!
पिछले साल गाँव गया था तो कमी को मैंने भी महसूस किया था. लेकिन यहाँ पर यदा कदा देखने को मिल जाता हैं. गोरैया के बारे में इतनी जानकारी देने के लिए आभार.
ReplyDeleteसच कहा है .. वैसे तो हर पशु पक्षी का जीवन दूभर कर दिया है इन्सान ने ... पर गौरैया को जैसे लुप्त ही कर दिया है .... वाजिब चिंता है आपकी ...
ReplyDeleteसच में यह नन्ही चिड़िया और हमारे आँगन की चूँ चूँ खो ही गयी है .....काश हम अब भी चेत जाएँ
ReplyDeleteवास्तव में जबसे मो० टावर लगा तबसे गौरैया गायब हो गई आजकल तो दिखाई ही नही पड़ती ,,,
ReplyDeleteRECENT POST : तस्वीर नही बदली
गौरैया शहरों में बहुत कम दिखती हैं ... लेकिन हमारे भोपाल में हमारे घर आंगन में जब इन्हें देखती हूँ तो मुझे बहुत अच्छा लगता है ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रेरक प्रस्तुति
गौरैया के लिए सार्थक पहल ....ज़रूर कुछ करना चाहिए ...!!
ReplyDeleteप्रयास जारी रखें !शुभकामनायें ।