Sunday, August 7, 2011

कितने रंग !

कितने रंग !
आसमां में 
देखे नहीं 
इस जहाँ में

 मन बेचैन रहता
हर पल 
उन्हें  याद करता
मन नहीं लगता 
इस जहाँ में

रंग भरने की 
तमन्ना थी 
जीवन में 
अकेला देखता रहा 
और पूरा कारवां 
ओझल हो गया

क्या करूँ !
कहाँ जाऊं !
सच कहूँ !
अब मन नहीं लगता 
इस जहाँ में 

5 comments:

  1. क्या करूँ !
    कहाँ जाऊं !
    सच कहूँ !
    अब मन नहीं लगता
    इस जहाँ में

    अरे ऐसी निराशावादी रचना क्यूँ?

    नीरज

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  2. नीरज जी , इंसान जब दर्द में होता है तो दर्द को ही लिखता है ...ये निराशावाद नहीं ...

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  3. मार्क भाई .. बहुत अच्छा और दिल को छु जाने वाला लिखा है. वाह .. दर्द और मन का रिश्ता .. वाह ..

    आभार
    विजय
    -----------
    कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html

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