Friday, July 17, 2009

मेरा जहाँ ...

अपना जहाँ ख़ुद ही खो दिया
अब भटक रहा हूँ
कैसे ?खो दिया
ये भी पता नही
साँसे थम गई
आवाज......
वो भी गुम हो गई
मेरी मंजिल तो मिली नही
दुसरे का ढूढ़ रहा हूँ
अपने ही घर में आग लगाया
अब पानी खोज रहा हूँ
अँधेरी रात को अपनाया
और भटक गया
अब चाँद से उजाला मांग रहा हूँ
अपना जहाँ ख़ुद ही खो दिया
अब भटक रहा हूँ

15 comments:

  1. bahut achhi rchna apki rchnao me kafi pripkvata a gai hai.badhai .likhte rhe .

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  2. khud nahi khote hum...jan ke apna jaha kon khoyega....kismat me jo likha wahi hota hai...log nahak khud ko ya kisi ko dosh dete hai......

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  3. मन के भाव हैं ...अच्छे लगे ....अगली बार और बेहतर की उम्मीद ....!

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  4. mark rai sahab aapke man ke ye bhaav bahut achche lage hamare man ko bhii khoob bhaaye........

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  5. अपने ही घर में आग लगाया
    अब पानी खोज रहा हूँ
    - अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत.

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  6. बहुत ख़ूबसूरत और दिल को छू लेने वाली रचना लिखा है आपने!

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  7. bahut hi sundar abhivyakiti.....

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  8. are RAI ji ise MARK kar lijiye ki jo kuch khotaa hai woh bahut kuch paataa hai.isi liye apni rachnaaon mai khone ke bhaav jyaadaa daaliye.
    jhallevichar.blogspot.com
    jhalli-kalam-
    angrezi-vichar.blogspot.com

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  9. आपके भाव बहुत ही संदर हैं, मौलिक हैं ..............और मेरा मानना है, भाव हों तो रचना अच्छी हो ही जाती है.......... बहुत लाजवाब लिखा है

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  10. "अपने ही घर में आग लगाया
    अब पानी खोज रहा हूँ"
    ये पंक्तियां बहुत अच्छी लगी....बहुत बहुत बधाई....

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  11. amazing poem mark.. very good work of words... ek kashish si hai ....aur likhiye ....


    vijay

    pls read my new poem "झील" on my poem blog " http://poemsofvijay.blogspot.com

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