वर्तमान दौर की युवा पीढ़ी मुझे ज्यादा ऊर्जावान लगती है। ये खुद को ज्यादा अच्छे से प्रस्तुत करते हैं। पुराने समय के बच्चों की तुलना में आज के बच्चे ज्यादा प्रोफेशनल भी हैं। अगर संगीत के क्षेत्र की बात की जाए, तो इसमें भी मुझे बहुत ज्यादा उत्साही युवक दिखाई पड़ते हैं, लेकिन इनके साथ समस्या एक ही है। इनमें नतीजे की जल्दी है। ये हर चीज जल्दी पाना चाहते हैं। सामान्यत: पैसा-प्रसिद्धि की चाह सभी को रहती है और यह सब समय आने पर मिलता भी है, लेकिन बड़े कलाकार जैसा पहनते हैं या जैसा करते हैं- वैसा करने की कोशिश कहां तक सही है? व्यक्ति को अपनी हैसियत पता होनी चाहिए। युवाओं के साथ यही परेशानी है कि बजाय रियाज करने के, उनका ध्यान धन-शोहरत पाने पर रहता है। ......हरिप्रसाद चौरसिया
..........................................................................................................................................................
एक बार अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन शहर का जायजा लेने निकले। रास्ते में एक जगह इमारत बन रही थी। वह कुछ देर रुक गए और निर्माण कार्य को गौर से देखने लगे। उन्होंने देखा कि कई मजदूर एक बड़ा-सा पत्थर उठाकर इमारत पर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। पत्थर बहुत ही भारी था, इतने मजदूरों से भी उठ नहीं पा रहा था। पास खड़ा ठेकेदार मजदूरों को पत्थर न उठा पाने के लिए डांट रहा था। वॉशिंगटन ने ठेकेदार के पास जाकर कहा, ‘मजदूरों की मदद करो। एक और आदमी अपना हाथ लगा दे तो शायद पत्थर उठ जाएगा।’ ठेकेदार वॉशिंगटन को पहचान नहीं पाया और रौब से बोला, ‘मैं दूसरों से
काम लेता हूं, मैं मजदूरी नहीं करता।’ यह जवाब सुनकर वॉशिंगटन घोड़े से उतरे और पत्थर उठाने में मजदूरों की मदद करने लगे। उनके सहारा देते ही पत्थर उठ गया और आसानी से ऊपर चला गया। अब वॉशिंगटन वापस अपने घोड़े पर आकर बैठ गए और बोले, ‘सलाम ठेकेदार साहब, भविष्य में कभी आपको एक व्यक्ति की कमी मालूम पड़े तो राष्ट्रपति भवन में आकर जॉर्ज वॉशिंगटन को याद कर लेना।’ यह सुनते ही ठेकेदार राष्ट्रपति के पैरों पर गिर पड़ा और अपने र्दुव्यवहार के लिए क्षमा मांगने लगा। वॉशिंगटन ने उससे विनम्रता से कहा, ‘मेहनत करने से कोई भी आदमी छोटा या बड़ा नहीं हो जाता। मजदूरों की मदद करने से तुम उनका सम्मान हासिल करोगे।
याद रखो, मदद के लिए सदैव तैयार रहने वाले को ही समाज में प्रतिष्ठा हासिल होती है। इसलिए जीवन में ऊंचाइयां हासिल करने के लिए व्यवहार में विनम्रता का होना
बेहद जरूरी है।’ उस दिन के बाद से ठेकेदार के व्यवहार में आश्चर्यजनक रूप से बदलाव आया। वह सभी के साथ अत्यंत नम्रता से पेश आने लगा।
..........................................................................................................................................................
एक बार अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन शहर का जायजा लेने निकले। रास्ते में एक जगह इमारत बन रही थी। वह कुछ देर रुक गए और निर्माण कार्य को गौर से देखने लगे। उन्होंने देखा कि कई मजदूर एक बड़ा-सा पत्थर उठाकर इमारत पर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। पत्थर बहुत ही भारी था, इतने मजदूरों से भी उठ नहीं पा रहा था। पास खड़ा ठेकेदार मजदूरों को पत्थर न उठा पाने के लिए डांट रहा था। वॉशिंगटन ने ठेकेदार के पास जाकर कहा, ‘मजदूरों की मदद करो। एक और आदमी अपना हाथ लगा दे तो शायद पत्थर उठ जाएगा।’ ठेकेदार वॉशिंगटन को पहचान नहीं पाया और रौब से बोला, ‘मैं दूसरों से
काम लेता हूं, मैं मजदूरी नहीं करता।’ यह जवाब सुनकर वॉशिंगटन घोड़े से उतरे और पत्थर उठाने में मजदूरों की मदद करने लगे। उनके सहारा देते ही पत्थर उठ गया और आसानी से ऊपर चला गया। अब वॉशिंगटन वापस अपने घोड़े पर आकर बैठ गए और बोले, ‘सलाम ठेकेदार साहब, भविष्य में कभी आपको एक व्यक्ति की कमी मालूम पड़े तो राष्ट्रपति भवन में आकर जॉर्ज वॉशिंगटन को याद कर लेना।’ यह सुनते ही ठेकेदार राष्ट्रपति के पैरों पर गिर पड़ा और अपने र्दुव्यवहार के लिए क्षमा मांगने लगा। वॉशिंगटन ने उससे विनम्रता से कहा, ‘मेहनत करने से कोई भी आदमी छोटा या बड़ा नहीं हो जाता। मजदूरों की मदद करने से तुम उनका सम्मान हासिल करोगे।
याद रखो, मदद के लिए सदैव तैयार रहने वाले को ही समाज में प्रतिष्ठा हासिल होती है। इसलिए जीवन में ऊंचाइयां हासिल करने के लिए व्यवहार में विनम्रता का होना
बेहद जरूरी है।’ उस दिन के बाद से ठेकेदार के व्यवहार में आश्चर्यजनक रूप से बदलाव आया। वह सभी के साथ अत्यंत नम्रता से पेश आने लगा।
.....................................................................................................................................
लोग गुरुमंत्र तो लेते हैं लेकिन अक्सर उसके पीछे अपनी शंकाएं भी चिपका देते हैं। मन में अविश्वास का भाव आया कि मंत्र का असर ख़त्म हुआ समझिए। मन का विश्वास ही एक साधारण से मंत्र को चमत्कारी बना सकता है। अगर गुरु से मंत्र दीक्षा में लिया है तो उसमे पूरा भरोसा रखिये। विश्वास से बड़ा कोई मंत्र नहीं है।
शंका करना मन का स्वभाव होता है। किसी पर अविश्वास करके मन बड़ा प्रसन्न रहता है। इसीलिए लोग गुरु के शब्दों में भी संदेह ढूंढ़ते हैं। सिद्ध गुरु आरंभ में शब्द ऐसे बोलते हैं कि मन के द्वार बंद न हो जाएं। गुरुमंत्र में ऐसा प्रभाव होता है कि वह मन में प्रवेश करता है और फिर धीरे-धीरे उसकी सफाई करता है।
शक्तिपात गुरु स्वामी शिवोमतीर्थजी महाराज कहा करते थे कि मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा विकसित हो गया है कि वह हर बात में शंका करता है। उससे कोई कितनी भी सहानुभूति करे, वह उसमें भी संशय करता है। अध्यात्म के विषय में उसने केवल सुना ही सुना है, अनुभव नहीं किया। इसलिए इस संबंध में वह और भी अधिक शंकालु हो गया है।
जब तक उसके मन में गुरु वचनों पर दृढ़ श्रद्धा नहीं होती, अंतर की शंका नीचे नहीं दबती। गुरु इस बात से अच्छी तरह परिचित होते हैं। अत: वह अपनी कृपा से शिष्य को चेतना शक्ति की जागृति का प्रत्यक्ष अनुभव करा देते हैं। चित्त में एक चिंगारी सुलग उठती है, जो आध्यात्मिक जागृति के लिए बीज का काम करती है।
सूर्य के फैलने वाले प्रकाश के पूर्व किरण होती है, जिससे साधक को ज्ञात हो जाता है कि चित्त में चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश होने वाला है, जिससे उसके मन में गुरु के प्रति, साधन के प्रति, अनुभव के प्रति श्रद्धा पैदा हो उठती है। श्रद्धा ही साधन का आधार है तथा सभी शंकाओं को दूर करने में मददगार है। श्रद्धा को केवल कर्मकांड से बलवती नहीं बनाया जा सकता, इसके लिए ध्यान बहुत जरूरी है। लगातार ध्यान करने से जो अनुभव होते हैं, उससे श्रद्धा परिष्कृत होती है।
शक्तिपात गुरु स्वामी शिवोमतीर्थजी महाराज कहा करते थे कि मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा विकसित हो गया है कि वह हर बात में शंका करता है। उससे कोई कितनी भी सहानुभूति करे, वह उसमें भी संशय करता है। अध्यात्म के विषय में उसने केवल सुना ही सुना है, अनुभव नहीं किया। इसलिए इस संबंध में वह और भी अधिक शंकालु हो गया है।
जब तक उसके मन में गुरु वचनों पर दृढ़ श्रद्धा नहीं होती, अंतर की शंका नीचे नहीं दबती। गुरु इस बात से अच्छी तरह परिचित होते हैं। अत: वह अपनी कृपा से शिष्य को चेतना शक्ति की जागृति का प्रत्यक्ष अनुभव करा देते हैं। चित्त में एक चिंगारी सुलग उठती है, जो आध्यात्मिक जागृति के लिए बीज का काम करती है।
सूर्य के फैलने वाले प्रकाश के पूर्व किरण होती है, जिससे साधक को ज्ञात हो जाता है कि चित्त में चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश होने वाला है, जिससे उसके मन में गुरु के प्रति, साधन के प्रति, अनुभव के प्रति श्रद्धा पैदा हो उठती है। श्रद्धा ही साधन का आधार है तथा सभी शंकाओं को दूर करने में मददगार है। श्रद्धा को केवल कर्मकांड से बलवती नहीं बनाया जा सकता, इसके लिए ध्यान बहुत जरूरी है। लगातार ध्यान करने से जो अनुभव होते हैं, उससे श्रद्धा परिष्कृत होती है।
....................................................................................................................................
बोलना और सुनना हमारी फितरत में शामिल है। कुछ लोगों को बोलने की बीमारी-सी हो जाती है। इसी तरह सुनने का भी नशा होता है। जब सुनने की इच्छा खूब होने लगती है तो आदमी दूसरों की बातों में रुचि लेने लगता है। क्या सुना जाए, भक्ति के क्षेत्र में यह भी आवश्यक है, क्योंकि हमारे जीवन में और इस ब्रहांड में बहुत कुछ अनसुना भी मौजूद है।
भजन, कीर्तन आध्यात्मिक प्रतिध्वनि होते हैं। इनके बोल जागरूकता के लिए प्रेरक बन जाते हैं। जिन्हें शांति की तलाश हो, वे अपने श्रवण, रुचि और क्षमता पर थोड़ा ध्यान दें।
ऐसा न सुनें, जो आवश्यक न हो और ऐसा जरूर सुनें, जो हमें और गहराई में ले जाए। इसलिए मेडिटेशन के समय शास्त्रीय संगीत की कुछ धुनें बड़ी काम आती हैं। कभी-कभी तो हमें ऐसा लगता है, जैसे ये स्वर हमें हौले-हौले हमारे ही भीतर गहरे ले जा रहे हों।
अंदर जाते समय जरा भी लड़खड़ाहट हो तो संगीत हमें संभाल लेता है। इसे ही साउंड ऑफ साइलेंस कहेंगे। थोड़ा समय इसे सुनने का प्रयास करें, क्योंकि हम सब शून्य से घबराते हैं। थोड़ा समय आंखें बंद करके जब बैठेंगे तो जो मौन, शून्य भीतर घटता है, उससे घबराहट होगी, क्योंकि आंखें बंद करते ही अंधेरा छा जाता है और अंधेरे में जैसे हम चलते समय किसी भी चीज से टकराते हैं, वैसे ही भीतर के अंधेरे में भी हड़बड़ाहट शुरू होती है।
थोड़ा-थोड़ा अभ्यास रोज करें। थोड़ी देर अधिक अंधेरे में रहो तो उस स्थान पर चलने का अभ्यास हो जाता है। आंखें बंद हों और कानों से कुछ ऐसा सुनें, जो हमें अपने ही भीतर उस अनसुने की ओर ले जाएगा, जिसे सुनकर गहरी शांति मिलेगी।
...................................................................................................................................................
कहना आसान है कि कर्म करते रहो, फल की चिंता मत करो। पहले तो इसी पंक्ति में संशोधन कर लें। फल की चिंता जरूर करें, क्योंकि बिना चिंता पाले कर्म की योजना, कर्म में परिश्रम नहीं हो पाएगा। इतना जरूर ध्यान रखें कि फल में आसक्ति न हो। दिक्कत आसक्ति से शुरू होती है, लेकिन ऐसा करना भी कठिन मालूम पड़ता है।
आजकल तो पहले फल निर्धारित किया जाता है, फिर आदमी कर्म करता है। इसीलिए जब उसे वांछित फल नहीं मिलता, तब वह परेशान होता है। फल की आसक्ति से मुक्त होने के लिए हमें अपने मनुष्य होने की रचना को समझना होगा। हम दो बातों से मिलकर बने हैं, दैवीय तत्व और भौतिक तत्व।
हमारी आत्मा दैवीय तत्व का हिस्सा है, मन भौतिक तत्व से जुड़ा है और तन इन दोनों का मिश्रण है। मन का स्वभाव है कि उसे सबकुछ चाहिए, बेलगाम चाहिए। इसीलिए मन या तो भविष्य की सोचता है या भूतकाल की, उसे वर्तमान में रुचि नहीं है। यह तमोगुणी स्वभाव है। आत्मा के भी तीन गुण होते हैं, जिन्हें सत्, चित् और आनंद कहा गया है।
जैसे मछली को जल में रहना ही प्रिय है, वैसे ही आत्मा आनंद में ही रहती है। जो आनंद में रहता है, वह भविष्य में फल की आसक्ति नहीं करता। इसलिए कर्म करते समय शरीर पूरा परिश्रम करे, लेकिन हम आत्मा की ओर मुड़े रहें, केवल मन पर न टिकें। और इसीलिए योगियों ने ध्यान को महत्व दिया है। ध्यान का अर्थ है वर्तमान पर टिकना। कई लोग पूछते हैं - क्या ध्यान करने से शांति मिलेगी? यह प्रश्न ही ध्यान में बाधा है। आप सिर्फ क्रिया करिए और अपने आप वह मिलेगा, जो सही है।
सुंदर सार्थक विचार.....
ReplyDeleteBahut badhiya vichar!
ReplyDeletebas itna kahunga......ek ek shabd se anand ki prapti hui...
ReplyDeleteaap sabhi ko dhanywaad........
ReplyDeleteजीवनोपयोगी व्यावहारिक जानकारी।
ReplyDeleteअच्छा संदेश।