असम में हिंसा भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी और तुष्टिकरण का प्रतीक है .इससे यह भी पता चलता है कि हमें आग लग जाने पर कुआं खोदने की पुरानी बिमारी है .तरुण गोगोई की सरकार लगातार तीसरी बार असम में सत्ता में आई तो इसका मतलब ये नहीं कि वो हाथ पर हाथ धरे बैठ सकती है या उसे ऐसा करने का जनाधार मिला है .समय रहते न चेतना आज के लोकतांत्रिक सरकारों की आदत बनती जा रही है .इस तरह की आदतों का शिकार वैसी पार्टियाँ अधिक है जिन्हें मतदाता लगातार चुनकर भजते रहते है .उनके नेताओं में कहीं न कही सामंतवादी सोच का उद्भव होने लगा है .यह लोकतांत्रिक सामंतवाद मध्यकालीन सामंतवाद से अधिक खतरनाक है .आज सुनियोजित ढंग से आम आदमी को प्रताड़ित किया जा रहा है ....कुछ नए नेताओं को तो व्यवस्थित रूप से इसकी ट्रेनिंग डी जा रही है .
एक कहावत है , जैसा राजा वैसी प्रजा. आज के सन्दर्भ में भी इस कहावत की अहमियत उतनी ही है जितनी राजशाही के समय में थी बल्कि मेरा तो मानना है की आज यह अधिक सटीक है . लोकतांत्रिक अंगों की दुर्बलता देख कुछ असामाजिक तत्व इसका भरपूर फायदा उठाते है और उन्हें कुछ विकृत मानसिकता वाले नेताओं का भी भरपूर समर्थन मिलता है. असम के मौजूदा हालात में सरकार निक्कमी दिख रही है या फिर उसको इस जनसंहार और हिंसा में कुछ फायदा दिख रहा है .सबको पता है असम के कोकराझार ,चिरांग आदि जिलों में आदिवासियों और मुस्लिमों के मध्य हिंसा कोई अनोखी घटना नहीं है . अभी चार साल पहले ही २००८ में ऐसी वारदातें हो चुकी है . फिर भी सबक न लेना सरकार के लकवाग्रस्त होने की ही निशानी है .
आशा के पर लग गए और तुम अभी उड़े नहीं क़यामत का इन्तजार कर रहे क्या ? प्यारी चीज थी तो क्या हुआ .. अब तो रहा नहीं , उस प्यार का लोभ... अब तो छोड़ दो !
Thursday, July 26, 2012
Sunday, July 22, 2012
आसिनव
मानव अपने कर्म के आधार पर ही विराट उचांई पर पहुच सकता है .अच्छे कर्म के लिए किसी ख़ास सम्प्रदाय से जुड़ना आवश्यक नहीं .जाति,सम्प्रदाय ,धर्म आदि उसकी मदद नहीं करते .ये सभी आसिनव है जो मानव कि उचांई को कम करने का प्रयास करते है .मानव का विवेक और मानवता ही उसकी मदद कर सकती है .
Tuesday, July 17, 2012
आज की समस्या
आज की समस्या केवल यह नहीं कि क्या करना है ...यह भी कि कैसे होगा ? वाह ! यही तो पूंजीवाद और उदारवाद का रूप है . सभी तरफ खामोशी ही खामोशी ....लोगो के जुबान बंद कर दिए जाते ....मुंह में पैसे खिला कर ....कुछ तो बधाई के पात्र है उन्होंने ऐसा समाज का उदघाटन जो किया है ...नरक तो अब स्वर्ग से भी अधिक प्रतिष्ठित हो गया... उसने अपनी जाति बदल दी ....देवता लोग भ्रमित है क्या करे ! कायर कहीं के ....छुप गए है. उन्हें इस चमचमाती तलवार से डर जो लगने लगा है ....ईश्वर भी निराशा के दौर में पालथी लगा के बैठ गया है ...उसे भी इस व्यस्था का तोड़ नहीं सूझ रहा ....
Saturday, July 14, 2012
रचना का भाव
रचना का भाव अगर अहिंसा हो तो ही रचना पूर्ण होती है .हिंसक रचनाएं इतिहास नहीं रच पाती .ऐसी रचनाएं समाज में समरसता की जगह विघटन पैदा करती है.दोस्तों हिंसक रचनाओं का त्याग कर देना ही बेहतर है .हमारा यह उतरदायित्व बनता है की हम समाज में समरसता का बीजारोपण करें . इसके लिए रचना का अहिंसक होना पहली और आखिरी शर्त है.
Friday, July 13, 2012
आँखों का तर्क
तर्क बातों से ही नहीं बल्कि आँखों से भी होता है . आँखों का तर्क समझना मुश्किल है .इस तर्क को किसी परिभाषा में नहीं बंधा जा सकता .यह तर्क शब्दहीन है पर बातों के तर्क से अधिक प्रभावकारी है .आँखों का तर्क इंसान को सच्चा इंसान बना देता है जबकि बातों का तर्क इंसान को जाहिल बना देता है .
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